Thursday, December 28, 2017

दादी के बर्तन



दिवाली आने में अभी कुछ दिन थे, पर जैसा कि और कुछ रिवाज़ों के साथ था, घर की सालाना सफाई दरअसल एक ज़रुरत थी। शायद श्राद्ध चल रहे थे या ख़त्म होने को थे।  हम बच्चे भी सामान उठाने-रखने में अहम् भूमिका निभाते थे। पुताई के लिए रसोई को खाली किया जाना था। माँ के कहने पर मैं बांस की सीढ़ी से टांड पर रखे सामान तक पहुँच गया।  मेरे छोटे कद की वजह से उस जगह में मैं आराम से काम कर सकता था। वहां देखा तो कुछ बड़े-बड़े बर्तन रखे थे। तांबे, पीतल और हिंडोलियम के थाल, परात, हांडे, लोहे की बड़ी कढ़ाई और लोहे की कुछ बड़ी-बड़ी करछीयाँ। कुछ छोटे बर्तन जैसे ताम्बे का लोटा और कुछ बड़े बड़े गिलास भी थे।  ये बर्तन मैंने कभी इस्तेमाल होते नहीं देखे थे। "ये किसके हैं?" मैंने पूछा। "दादी के हैं, कढ़ाई ध्यान से उतारना, भारी है कहीं हाथ से छुट न जाए", माँ ने कहा। माँ की आवाज़ भावहीन थी, और मेरे लिए उसका मतलब एक रूखापन था। शायद माँ और दादी की बनती न थी।  ऐसा कभी किसी ने कहा तो नहीं था पर मुझे लगता था। जहाँ दादा हमेशा हमारे साथ रहते, दादी मेरे चाचा के यहाँ रहती थी। जब कभी मैं पिताजी से पूछता कि  दादी हमारे साथ क्यों नहीं रहतीं तो वो कहते की चाचा के बच्चे भी छोटे हैं और उन्हें भी देखभाल की ज़रुरत रहती है, इसीलिए दादा हमारे साथ, और दादी उनके साथ रहती हैं। दादी कभी-कभी हमारे यहाँ आतीं पर दो-तीन दिन में ही चली जातीं। दादी हमसे ज़्यादा बात नहीं करतीं थीं और इसीलिए हमें उनके आने पर कोई बहुत ख़ुशी नहीं होती थी।  दादाजी के साथ मैं अक्सर सैर के लिए जाता था और वो मुझे ढेर सी बातें बताते। वो हमें हमारी उपलब्धियों पर उपाधियाँ देते जिनके लिए हम चचेरे भाइयों में हमेशा होड़ रहती। अक्सर सबसे बड़ी उपाधि मेरे ताऊजी के बेटे को मिलती। हालाँकि बाकि सब बच्चों को निराशा तो होती पर कभी पक्षपात का आभास नहीं होता।  
कुछ दिन में सफेदी और सफाई पूरी हो गयी। मुझे फिर से बांस की  सीढ़ी लाने को कहा गया, इस बार बर्तन वापिस रखने थे।  पर मैं उस वक़्त खेलने जाने को आतुर था।  मेरे दोस्त मैदान में आ चुके थे और पिट्ठू का खेल शुरू करना था। उन दिनों पिट्ठू का दौर था, हमारे खेल हर कुछ दिन में बदल जाते। अब तक लंगड़ी-टाँग, खो-खो और गैलरी पुराने और उबाऊ हो चुके थे। फुटबॉल और क्रिकेट ज़्यादा फैशन में थे पर उनका सामान कुछ ही बच्चों के पास था। उन दिनों हमारी कॉलोनी में कोई न कोई मकान बनता रहता था और हम बच्चे वहां जा कर पिट्ठू का जुगाड़ कर लेते। कभी-कभी तो हमारे लिए कोई कारीगर एक दम गोलाकार काट कर पिट्ठू के पत्थर बना देता। मानों लौटरी लग जाती और फिर कई महीने तक वो पिट्ठू हमारे ख़ज़ाने का हिस्सा रहते। पिट्ठू के खेल में ताकत, निशाना, फुर्ती और सहनशक्ति सब ही खूबियों का प्रदर्शन हो जाता और नव-यौवन की देहलीज़ पर पैर रखते बच्चों को एक चुनौती और उत्तेजना का आभास कराने में सक्षम था।
"मुझे खेलने जाना है, आकर रखवा दूंगा", मैंने माँ से कहा। पर माँ कहाँ सुनने वाली थी, "मुझे फिर खाना बनाना है", माँ ने कहा।
"ये बर्तन किस काम आते हैं?" मैंने पूछा। 
"किसी नहीं। आजकल इस्तेमाल नहीं होते। अब तो खाना गैस चूल्हे पर बनता है और इतने बड़े बर्तन उस पर नहीं रखे जा सकते, जब अंगीठी पर खाना पकता था तो ये काम आते थे।" माँ ने उत्तर दिया। 
"तो फिर इनको वापिस क्यों रखना हैं, इनको फ़ेंक क्यों नहीं देते ?" मैंने फिर पूछा। 
"बहुत महँगे हैं, फ़ेंक नहीं सकते। पता है ताम्बा और पीतल आजकल क्या भाव है" माँ ने समझाया। 
"तो फिर बेच दो, बिन बात जगह घेरते हैं।" शायद मेरी उम्र मुझे जिरह का आनंद सिखा रही थी। 
"सिर्फ पांच मिनट लगेंगे, रखवा दो। किसी को दे दिए तो दादी को बुरा लगेगा" माँ बोली। 
'तो यह बात है ', मैंने सोचा और बिना कुछ कहे अनमने मन से वो बर्तन फिर से रखवा दिए। 

बहुत साल बीत गए। घरों की शक्ल बदल गयी और रसोई-घर की सबसे ज़्यादा। अब सिल-बट्टे की जगह मिक्सी इस्तेमाल होती थी, पत्थर की चक्की घरों से गायब हो चुकी थी, काफी कुछ खाना बिजली के उपकरणों से बनने लगा था। अब रसोई में पंखा और एग्जॉस्ट फैन भी लग गए थे। मेरे दादा-दादी का स्वर्गवास हो चुका था। मुझे अजीब लगता था कि हालाँकि मेरी याददाश्त में दादा-दादी हमेशा अलग-अलग घर में रहे, लेकिन जब दादी का देहांत अचानक पहली जनवरी को हो गया, तो तीन महीने के भीतर ही दादा भी चल बसे। मैं सोचता ज़रूर दोनों में काफी स्नेह रहा होगा। मैं अब हॉस्टल में रहता था और केवल छुट्टियों में ही घर आता था।  पर जब भी आता, घर के छोटे-मोटे बिजली और सेनेटरी के काम  मैं ही कर देता। एक बार मैं नव-वर्ष के मौके पर घर पर था। तभी अचानक रसोई का एग्जॉस्ट ख़राब हो गया। माँ ने कहा, "तेरे लिए परांठे बना देती हूँ, ज़रा ये पंखा देख दे। " मैं पंखा ठीक करने के लिए कुर्सी रख ऊपर चढ़ा तो यकायक मेरी नज़र वहां पड़े बर्तनों  पर पड़ी। 
"अरे, ये अभी तक रखे हैं" 
"क्या वो दादी के बर्तन, तो इनको और कहाँ रखें?" माँ ने तवा चढ़ाते हुए कहा। 
"इन्हें निकाल क्यों नहीं देते ?" मैंने पूछा 
"इतने बड़े बर्तनो को कौन बाजार ले कर जाए और अब क्या कीमत मिलेगी इनकी। ये लाइटर तो फिर नहीं चल रहा, नीचे उतरेगा तो इसे भी देखियो। मुझे तो माचिस ही ठीक लगती है। " माँ ने कहा। 
"तो कामवाली को दे दो, उसे ही कुछ पैसे मिल जायेंगे। नहीं तो इस्तेमाल कर लेगी, उसके यहाँ तो अंगीठी होगी।" मैंने एग्जॉस्ट की तार जोड़ते हुए कहा। 
"वो तो स्टोव पर खाना पकाती है, हमारे राशन कार्ड का मिटटी का तेल भी वही लेती है।  वो क्या करेगी इनका। चल तू नीचे आजा और ये खाना मंदिर में दे आ।" माँ ने कहा। 
"मंदिर क्यों?" मैंने पूछा। 
"दादी के नाम का निकाला है, उनको ऐसे परांठे बहुत पसंद थे। आज पहली जनवरी है न!" माँ ने राज़ खोला। माँ के बोलने के लहज़े से मैं समझ गया कि चाहे माँ और दादी की बनती न हो पर कुछ लगाव तो रहा होगा। फिर माँ बोली "अरे ये बर्तन तेरी दादी की निशानी हैं, पड़े रहने दे, तेरे पिताजी को बुरा लगेगा अगर निकाल दिए तो।"
अब बात मेरी समझ में आ रही थी।  

समय का चक्र घूमता रहा। मैं नौकरी करने लगा और मेरा विवाह हो गया। कुछ समय उपरांत बच्चे हुए और परिवार बढ़ने लगा। घर में जगह की किल्लत होने लगी। हमारी ज़रुरत को देखते हुए, पिताजी ने निर्णय लिया कि घर का पुनः निर्माण कराया जाये। घर पुराना भी हो चला था और एक करीने से बने नए घर का विचार सबको अच्छा लगा। उसके लिए पुराने घर को खाली करना था ताकि उसे तोडा जा सके। गैर-ज़रुरत वस्तुओं को निकालने का यह सुअवसर भी था और वो ज़रूरी भी था। ये तय करना आसान नहीं था की कौन सी चीज़ बेकार है। इसके लिए एक फार्मूला बनाया गया कि कोई भी वस्तु अगर पिछले छह महीनों में इस्तेमाल न हुई हो और बहुत मूल्यवान न हो तो उसे बेकार मान लिया जाए। आधी पैकिंग के बाद ये फार्मूला दो साल में तब्दील कर दिया गया। तब हमें मालूम हुआ कि हम कितना फज़ूल का सामान जोड़ कर रखते हैं और फिर कहते हैं कि  घर में जगह की कमी है। ढेर ऐसी चीज़ें निकली जिनके होने का हमें इल्म ही नहीं था। रसोई की दुछत्ती में से फिर निकले वो दादी के बर्तन। धुल की परत ने उनकी शक्ल बदल दी थी।  लोहे की कड़ाही और करछी में ज़ंग लग चुका था और बाकि काफी बर्तनों पर उस ज़ंग के निशाँ थे। 
"अब इनका क्या करना है?" मैंने माँ से पूछा। 
"देख लो अगर ट्रक में जगह है तो डाल लो!" माँ ने कहा।  
"ट्रक में तो जगह है पर किराये के घर में कहाँ जगह होगी!" मैंने माँ को समझाया। 
"फिर तुम्हारी मर्ज़ी है! कुछ रख लो, अगर हो सके तो", मैं समझ रहा था कि  माँ पिताजी की भावनाओं का ख्याल करके ऐसा कह रही होंगी। तो मैंने सोचा कि चलो पिताजी से ही पूछ लेता हूँ। 
"मैंने तो कितनी बार कहा है कि  इन्हें किसी को दे दो, रखे-रखे ज़ंग लग गया, पर तुम्हारी माँ हमेशा मना कर देती है, उसी से पूछ लो।" पिताजी की बात से मैं अचम्भित था। 
मैंने माँ से कहा, "माँ , अगर हम ये बर्तन ले भी गए और संभाल के भी रखे, पर जब वापिस नए घर में आएंगे तो क्या इतने पुराने बर्तन हम रखेंगे? आप ही बतायो, इनको ले जाने का क्या फ़ायदा ? और पिताजी तो खुद ही इन्हें निकालने को कह रहे हैं"
"ठीक कहते हो!  जब घर ही नया बन जायेगा तो पुराना क्या रह जाएगा! ये बर्तन शायद तुम्हारी दादी ने तुम्हारी बड़ी बुआ की शादी के समय बनाये थे! बुआ शादी हो कर चली गयी तो ये बर्तन दादी के लिए बुआ की याद बन गए! फिर बुआ अचानक चल बसी तो दादी को बहुत सदमा लगा और वो चुप-चाप रहने लगीं! जब मेरी शादी हुई तो मैंने पाया की तुम्हारी दादी के लिए इन बर्तनों का ख़ास महत्व् था, उन्होंने कभी कहा तो नहीं पर मैं महसूस कर पाती थी। मेरे आने के बाद शायद अपनी खोयी बेटी को उन्होंने मुझमें पाया। अपनी ज़िम्मेदारियों की वजह से वो मेरे पास ज़्यादा रह तो नहीं पायीं, पर दो-तीन दिन के लिए मेरे पास आती थी। जब भी आती मुझे चुपके से कुछ न कुछ दे जाती। अब इन्हीं बर्तनों में मैं उनको पाती हूँ। मुझे लगता है जब तक ये बर्तन घर में है, उनका आशीर्वाद हमारे ऊपर बना रहेगा। लेकिन जब मनुष्य ही स्थायी नहीं है तो इन बर्तनों का क्या औचित्य। एक न एक दिन तो इन्हे निकालना ही होगा। "
मैं माँ की भावनाएँ समझ रहा था किन्तु व्यवहारिकता मुझे भावुकता से परे ले जा रही थी। एक समाधान निकाला गया। दादी की एक फोटो फ्रेम में मढ़वा कर दीवार पर टांगी जाये, जिससे हम दादी को याद रख सकें और बर्तनों से विमुक्त हुआ जा सके। 
दो साल बाद जब हम नए घर में वापिस आये तो दादी के बर्तन हमारे साथ नहीं थे। दादी की फोटो का फ्रेम हमारे साथ था और साथ ही में मेरी माँ की फोटो भी फ्रेम में थी। माँ इस दौरान कैंसर रोग से चल बसी थी।






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