Saturday, November 24, 2018

धुएँ की तिज़ारत

एक ज़िन्दगी रोज़ नए मायने तय कर रही है
और एक आज भी उस अधूरी करवट में रुकी है
एक निगाह क्षितिज पर गड़ी है
पर एक मायूसी से परस्पर झुकी है
जिस दरख़्त को बड़ी शिद्दत से सींचा था
जिसकी हर टहनी को बाँहों में भरा था
हर टूटते पत्ते को दांतों से भींचा था
जिसके ज़हर को भी गले उतारा था
हर हाल में पनपेगा वो
बस एक यही वादा था
उस पेड़ को आग लगा आया हूँ

मेरी सब नादानियाँ जो सह गया
भला एक नेकी से कैसे बह गया?
जिसने उसे खोखला किया
वो फरेब की नहीं थी,  वो झूठ की भी नहीं थी
वो दीमक मुसाबक़त की थी
जिससे दर्द की रेत रिसने लगी
उस दरख़्त को आग लगा आया हूँ

दूर हूँ, दीखता नहीं,
पर  अब यक़ीनन दर्द धुआँ हो गया है
जो गले के ज़हर को उबालता है
मेरी हर ख़ुशी को अधूरा करता है
खोखलेपन का इलाज
शोलों से भर, कर आया हूँ
चारागर हूँ, दवा कर आया हूँ
अब न दरख़्त है, न खोखलापन
और न आग
बस धुआँ है
और धुएँ में बसा दर्द
एक एहसास ने सब बेच दिया
और सब के बदले
मैं ये धुआँ  खरीद लाया हूँ
आखिर मैं उस दरख़्त को आग लगा आया हूँ

उसके सुलगते ठूंठ को
कोई पानी से बुझा दो
कभी पानी से जिसको खूब पाला था
अब भला कैसे उसकी प्यास बुझाऊँ
मैं तो उस दरख़्त को आग लगा आया हूँ!!

The course of the course!

The course of the course!  Our motivation to join the course was as per the Vroom's Expectancy theory, as we expected that with a certai...