Thursday, November 7, 2013

vibhed

मनुष्य हूँ मैं, मनु का पुत्र,
भेद-भाव मेरी प्रकृति है।
स्वयं को श्रेष्ठ स्थापित करूं,
इसी तात्पर्य हेतु ये युक्ति है।
जन्म होते ही मुझे ज्ञात है,
कि मेरी मृत्यु निश्चित है, शत-प्रतिशत। 
फिर भी मुझे भय है,
मेरी दुर्बलतायों ने परस्पर ही किया है मुझे आहत। 
हर व्यक्ति, हर वास्तु भयावह है,
कहीं मेरी हीनता समक्ष आ गयी,
तो मेरा अंत तय है।
यही सोच मुझसे हर क्षण परिश्रम करवाती है,
श्रेष्ठ सिद्ध होने को नए - नए समीकरण बनवाती है। 

"मैं पुरुष,  तुम नारी।
मैं सवर्ण नारी, तुम कुलहीन बेचारी!
मैं सुवर्ण, सुदेह, तुम विकृत।
तुम तिरस्कृत, मैं परिस्कृत।
मैं अधिकारी, तुम अधिकृत।
मैं समर्थ, तुम निरर्थ।
मैं एक आविष्कार , तुम व्यर्थ।
मैं वृद्ध, तुम अज्ञान बाल,
मैं चढ़ता सूर्य, तुम सांयकाल।"

और इस प्रयोग कि पराकाष्ठा है,
जो मेरी अपने अहम् में आस्था है।

"मैं ज्ञानी , तुम अबोध।
मैं सर्वदा सौम्य, तुम पुनि पुनि करते क्रोध।
मैं भला, मैं उचित, मैं महान। 
मैं श्रेष्ठ हूँ,
क्योंकि मेरी सोच है सतोगुण प्रधान।
तुम हीन  हो,
क्योंकि तुम गुण विहीन हो।"

येन-केन-प्रकारेण हर तर्क कि प्रदा 'अंतर' है,
सत्ता, बल और मत के साथ
तादात्मय स्थापित करने का प्रयास, निरंतर है।
क्योंकि विविधता संसार की  प्रकृति है,
और शाश्वत जीवन कि इच्छा, भय, भेद-भाव
ये मनुष्य कि प्रवृति है।
यदि सौहार्द को जीवन का मूलाधार बनाएं
तो संभवतः दूसरों का ही नहीं ,
अपना भी जीवन सरल, साकार बनाएं।
 चलो भेद-भाव को त्याग कर
सबको ह्रदय से लगाएं,
संसार को एक जीने योग्य जगह बनाएं। 

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