सुबह सवेरे फिर दोस्तों की याद आई
सोते हुए कानों में ज्यों कोई फरियाद आई
मैं भी झट से उठा, चप्पल पहनी, मुँह धोया
चलने ही लगा था, की पीछे से मेरा चश्मा रोया
'मुझे भी साथ ले चलो, मैं यहाँ पड़ा-पड़ा क्या देखूं
क्यों न तुम्हारे साथ मैं भी अपनी आँखें सेकूं'
मैंने उसे लिया तो सही पर बंद कर कवर में
जेब में डाला बनस्पत चढाने के अपनी नज़र पे
बाग़ में पहुंचा तो उजाला तो था
किसी ने बड़े बेमन से दिन निकाला तो था
पर कुछ कमी थी
पत्तियों की आँखों में अब भी नमीं थी
फूल भी सब मुँह लटकाये थे
इधर-उधर देख रहे, आँखें झुकाये थे
कंघी भी नहीं की थी
मुसी हुई सी पंखुड़ियां भी थी
जहाँ रात को सोयीं वहीँ पड़ी थीं
एक की बाहें दुसरे की टांगों में अड़ी थीं
"अरे भाई, सब उदास क्यों हो?"
मैंने अपने दोस्तों की तरफ एक प्रश्न फेंका,
किसी ने जवहायीं तक न ली
सूरजमुखी ने तो कनखियों से देखा,
"इतना भी नहीं मालूम!", मानो कह रहा हो
जेब में चश्मा भी छटपटा रहा था,
जेब में चश्मा भी छटपटा रहा था,
जैसे कितनी यातना सह रहा हो
मैंने उसे आज़ाद किया
और नज़रों पे आबाद किया,
"ओह! आज सूरज नहीं आया
अरे तुमने पहले क्यों नहीं बताया
चलो अब हँस के दिखायो
मेरे आने का तो ईनाम बताओ"
मेरी बात सुन वो हँस पड़े
सूर्यदेव से मेरी तुलना पर मुझसे झगडे
"सूर्य को दीपक दिखाते हो
खुद को हमारा दोस्त बताते हो
तुम तो रोज़ सैर को भी नहीं आते
ऐसे भुलक्कड़ दोस्त हमें नहीं भाते"
"सूरज न सही
पर तुम्हें अपना दोस्त बनाया तो है
उपहास को ही सही
पर तुम्हें हँसाया तो है"
मेरी बात सुन स्वयं
सूर्यदेव ने ताली बजायी
और उनकी किरणें
उसी क्षण बाग़ में लहराईं
अब मुझे अपने दोस्तों पे यकीन हो चला था
आज उनसे मिलने का मौका खूब भला था
चलो मेरे कारण सब मिल तो लिए
मुरझाये हुए चेहरे अब खिल तो लिए!!
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