Sunday, October 23, 2016

बे-इश्क़

ज़िन्दगी इतनी भारी तो कभी न थी
रोज़ ही सुबह तकिये का वज़न बढ़ जाता है!
जबसे देखी है सीरत तेरी,
अब कहाँ सूरत-ए-हुस्न पे प्यार आता है!!
गयी-गुज़री ही गुज़र गयी
लगता है देखकर अब तुझको ऐ ह्यात,
इससे ज़्यादा भी जूझ लेते हैं लोग
 न होगी हममें ही शायद कोई बात!
तेरे ज़ुल्मों ने पाला समंदर मेरी आँखों में
इनको कैसे बाँध लूँ बातों  के बांधों में!
मुझसे मेरा फ़र्ज़ मांगते हैं सभी
ज़िन्दगी एक क़र्ज़ की तरह चुकाए जाता हूँ!
ख़्वाहिशें कभी उठातीं है सर 
तो सजदे में तेरे उनको भी झुकाये जाता हूँ!
किस दिन इस सज़ा से निजाद होगी 
कब इस मुश्किल का हल हो जायेगा?
कज़ा से पहले भी ये मुमकिन है,
शायद उसी रोज़ 
जब  मुझे तुझसे इश्क़ हो जायेगा!

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