Tuesday, March 7, 2017

काला सूरज

मैं ढलता सूरज हूँ,
अब न मुझमें आग सही,
पर अभ भी मुझमें लाली है!

मेरी कलम में  न ताकत सही
पर मुहँ में अब भी गाली है!

 और एक इशारे पर मेरे
भोंकने लगेगी वो टोली
जो मैंने पाली है!

तुम मेरा कुछ भी
बिगाड़ पायोगे,
ये पुलाव तो
ख़ालिस ख्याली है!

मेरा काम फरेब था
पर ज़्यादा हंसों मत,
तुम्हारा तो भविष्य भी
जाली है!

मैंने झूठ को ही था पकड़ा
और उसकी ही लकीरें हैं हाथों में
पर तुम तो बेमायने हो
तुम्हारी तो अब भी
मुट्ठी खाली है!

तुम्हारे आकाश में सदा
अन्धकार रहेगा,
क्योंकि सूरज सभी मुझसे होंगे,
हमने अपनी जगह बना ली है!

तुम सूरज हो सकने की
कभी सोचोगे नहीं
और चिरागों के लिए
आसमान नहीं,
होती केवल थाली है!

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