Tuesday, March 4, 2014

rahu kalam

जैसे कि ' राहु काल' था,
अचानक सर से हट गया,जो  बवाल था।
कभी क्या खूब था,
फिर गया  सारा तिलस्म डूब था।
फिर नज़र आने लगा है एक ताज महल
फिर उसमे क़दमों कि है चहल-पहल,
जनाब! मैं तो वोही था, हूँ और है मुमकिन,
कि रहूँ,
ये तो आपकी शाही नज़र है,
जो कभी नज़रे-शिकायत थी,
वो फिर नज़रे-इनायत है,
यूं लगता है कभी, कि हमारी ज़िन्दगी
सफाई देने कि एक कवायद है।
अरे अरे रुको, चल दो न यूँही
ये शिकायत नहीं, ये तो मेरी खुद से गुफ़तगू है,
कम से कम अभी तो  नज़रे करम है
इतना ही सुकून है!

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