Tuesday, November 11, 2014

जश्न-ए-ज़िन्दगी चलता रहे, कभी ऐसे कभी वैसे

जश्न-ए-ज़िन्दगी चलता रहे, कभी ऐसे कभी वैसे 

जब भी उदास होता, तेरे दर पे चला आता
"जश्न-ए -ख़ुशी को सदा खुला है"
ऍसे वहाँ  झंडे गढ़े थे!
आज जब मैं बेइन्तहा खुश था,
आया तो पाया, कि तेरे दर पे ताले पड़े थे!
न कोई जश्न, न ख़ुशी, सिर्फ एक सन्नाटा,
पर हम भी हम थे, ज़िद पे अड़े थे,
कभी तो खुलेगा, कभी फिर शुरू होगा
ज़िन्दगी का शोर, रौनक-ओ-ख़ुशी होगी
हम सहर होने तक वहीँ खड़े थे!
आख़िर वो हँसी आ ही गयी तेरे लब पे,
कैसे न आती,
बहुत बाशिद्दत हमने ये रिश्ते गढ़े थे!

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