Wednesday, October 14, 2015

अजीब आदमी

अजीब आदमी 

मेरी माँ का क़त्ल है मेरे सिर पर
और कन्धे पर उसकी लाश,
वो मुझे दुनिया में सबसे अज़ीज़ थी
अब है दुसरे की तलाश,
ज्यों-ज्यों मैं अपनों को
मौत के हवाले करता हूँ
उनसे मेरी मुहब्बत बढ़ जाती है
और जीते-जी
उनकी हर बात से
माथे पे शिकन पड़ जाती है !

ये मेरा परवाह न करना,
मैं सोचता हूँ
विश्वास है उस सर्वशक्तिमान में
जो इस दुनिया को चलाता है
कि सब ठीक होगा,
अपनी ज़िम्मेदारी
कुदरत पर डाल
सोच लेता हूँ
कि  सब ठीक होगा,
ये मेरी खुदगर्ज़ी है या आलस,
अपनों को खोने का डर
भी मुझे झकझोरता नहीं
भुगत चूका हूँ
फिर भी अपना
रास्ता छोड़ता नहीं !

खोद रहा हूँ एक खाई
पर दिखती नहीं इसकी गहराई
जब कोई आवाज़ देता है
तो आँसुओं से भर
तैर कर ऊपर आ जाता हूँ
और दिखा देता हूँ
अपनी चतुराई,
पर ये नकलीपन
छोड़ता नहीं !

क्यों मेरी गर्मजोशी
सिर्फ ग़ैरों के लिए है
और अपनों के लिए
एक बेरुखी, एक उपेक्षा,
ज्यों गैर अपने हो जाते हैं
वो भी अपनों  की भीड़
में खो जाते हैं
और फिर गैरों की तलाश है
और कन्धों पर
फिर अपनों की लाश है !

गैर मुझे अज़ीज़ हैं
पर पराये हो जाते हैं
अपने होने के बाद,
अपने अच्छे लगते हैं
क्यों मुझे खोने के बाद?







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