[ रुख़ हवायों के बताता रहा, पुर्ज़े खतों के उड़ाता रहा ]
ख़त में मेरा पता कहाँ था, यही इलज़ाम लगाता रहा!
वो अपने ज़ख्म कुछ इस तरह सहलाता रहा
ख़ैरियत मेरी पूछता रहा, जी बहलाता रहा!
नम होने न दिया आँखों को
खुश्क ठहाकों से उनको सुखाता रहा!
और बातों पर उसकी आँख जब मेरी भर आई
मुझे ही दिलासा दिलाता रहा !
रुख़ हवायों के बताता रहा, पुर्ज़े खतों के उड़ाता रहा !
खुदा होने की आदत थी उसको
अपने ग़म तो दिखाए पर दर्द को हँसी में उड़ाता रहा
ख़ैरियत मेरी पूछता रहा, जी बहलाता रहा!
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