Friday, January 13, 2023

जी बहलाता रहा!


[ रुख़ हवायों के बताता रहा, पुर्ज़े खतों के उड़ाता रहा ]

ख़त में मेरा पता कहाँ था, यही इलज़ाम लगाता रहा!


वो अपने ज़ख्म कुछ इस तरह सहलाता रहा 

ख़ैरियत मेरी पूछता रहा, जी बहलाता रहा!


नम होने न दिया आँखों को 

खुश्क ठहाकों से उनको सुखाता रहा!

और बातों पर उसकी आँख जब मेरी भर आई 

मुझे ही दिलासा दिलाता रहा !

रुख़ हवायों के बताता रहा, पुर्ज़े खतों के उड़ाता रहा !


खुदा होने की आदत थी उसको 

अपने ग़म तो दिखाए पर दर्द को हँसी में उड़ाता रहा 

ख़ैरियत मेरी पूछता रहा, जी बहलाता रहा!


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