अधूरा सफ़र?
ये सफ़र, ये यात्रा,
यूं लगता है की मुक़म्मल नहीं हुई,
कहीं अधूरी छूट गयी,
क्योंकि मेरे हमसफ़र अब नज़र आते नहीं,
वो ख़ूबसूरत नज़ारे, वो मंज़र, अब नज़र आते नहीं,
बीते हुए लम्हों का स्वाद भी खोने को है,
तेरे साथ बिताये वक़्त की याद भी खोने को है,
वो कारवां, वो काफिले अब नहीं रहे,
जुदा कुछ यूं हुए की शिकवे-गिले भी अब नहीं रहे,
बस एक पड़ाव आया था,
बस एक ठहराव आया था,
और कहीं सब खो गया,
और वहीँ सब खो गया!
सफ़र इसका नाम है,
और चलना मुसाफिर का काम है,
माज़ी नज़र आता नहीं, क्योंकि सफ़र बढ़ चला है,
सुबह का वो लाल सूरज खो गया है,
क्योंकि दिन अब चढ़ चला है,
माना वो कारवां नहीं क्योंकि ज़रिया-ऐ-सफ़र बदल गए,
वो हमसफ़र नहीं क्योंकि हमसफ़र बदल गए,
होती अब दिलखुश लम्हों की बारिश नहीँ,
क्योंकि अब तू सिर्फ इनका वारिस नहीं,
अब तू सिर्फ इनका ज़रिया नहीं, अब तू किसीके असरीया नहीं,
तेरा सफ़र बढ़ चला है, तेरा हुनर चढ़ चला है,
अब तो तू ही ख़ुशी-तराश है,
फिर क्यों तुझे अब भी तलाश है,
सफ़र मुसल्सल चलता रहेगा और नए आयाम आते रहेंगे,
ज्यों-ज्यों ये मुक़म्मल होगा, नए मुकाम आते रहेंगे।
अब इस यात्रा में रंग तुझे भी भरना है,
यदि ये यात्रा केवल मेरी नहीं,
तो तेरे बिना ये पूर्ण कैसे होगी,
अब कुछ कोरे पन्नों को तुझे भी रंगना है।
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