विडम्बना प्रकृति की
ज्यों ज्यों मस्तिष्क होता जाता उत्तीर्ण,
त्यों त्यों इसे घर कर रहा ये शरीर हो रहा है जीर्ण,
सृष्टि के नियमों को आंकों
प्रकृति के अपव्यय में झाँकों,
बुद्धि के अनुभव की करती वृद्धि
किन्तु अपकृत होता जाता सारथि
कितना व्याकुल होगा वो हाथ जो निपुण है, सबल नहीं
क्या सृष्टि का ये प्रयोग 'मानव', विफल नहीं?
परिपक्व होते ही, आत्मनाश का होता प्रारंभ,
क्यों मानवजीवन हो रहा केवल एक कंद?
शिक्षा हमें हैं सिखलाती कि वृद्धों का सम्मान करो,
प्रकृति के शिक्षण का कोई तो सामान करो!
यदि योग्यता के साथ ये शरीर सक्षम होता जाता,
तो मंगल तो क्या मनुष्य आदित्य तक पहुँच जाता।
ज्यों ज्यों मस्तिष्क होता जाता उत्तीर्ण,
त्यों त्यों इसे घर कर रहा ये शरीर हो रहा है जीर्ण,
सृष्टि के नियमों को आंकों
प्रकृति के अपव्यय में झाँकों,
बुद्धि के अनुभव की करती वृद्धि
किन्तु अपकृत होता जाता सारथि
कितना व्याकुल होगा वो हाथ जो निपुण है, सबल नहीं
क्या सृष्टि का ये प्रयोग 'मानव', विफल नहीं?
परिपक्व होते ही, आत्मनाश का होता प्रारंभ,
क्यों मानवजीवन हो रहा केवल एक कंद?
शिक्षा हमें हैं सिखलाती कि वृद्धों का सम्मान करो,
प्रकृति के शिक्षण का कोई तो सामान करो!
यदि योग्यता के साथ ये शरीर सक्षम होता जाता,
तो मंगल तो क्या मनुष्य आदित्य तक पहुँच जाता।
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